बुद्ध का भारतीय दर्शन परंपरा में विशेष महत्व है| इसके कई कारण है-
पहली बात,
- बुद्ध हमें सिखाते हैं कि मौन का अपना महत्त्व है, हर बात में मुखर नहीं होना चाहिये।
- दर्शन में कुछ ऐसे बुनियादी सवाल हैं (जैसे- जगत अनंत है या नहीं), जिनका प्रामाणिक उत्तर दुनिया में किसी के पास नहीं है पर अधिकांश दार्शनिकों ने उनका अंतिम उत्तर देने का दावा ज़रूर ठोका है।
- उन्होंने इतना ही कहा कि प्रश्नों के उत्तर बुद्धि की कोटियों और व्याकरण की भाषा में नहीं समा सकते। यह कहकर वे उपनिषदों से इतर भारतीय परंपरा के पहले बड़े दार्शनिक बन गए जिन्होंने ज्ञान की सीमाओं को मुक्त भाव से स्वीकारा।।
दूसरे,
- बुद्ध ने 'शुष्क दार्शनिक ज्ञान' और 'संवेदनशीलता' के बीच हमेशा संवेदनशीलता को प्राथमिकता दी, और ऐसा करके उन्होंने – संत पॉल की भाषा में कहें तो – दर्शन को 'आध्यात्मिक पेटूपन' से बचाया।
- उनकी मूल चिंता यही थी कि "दुनिया में दुखी लोगों ने जितने आँसू बहाए हैं, उनका जल महासागरों के जल से भी अधिक है।"
- चूँकि किसी के आँसू पोंछने के लिये ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरत करुणा की होती है, इसलिये वे करुणावान हुए।
- उन्होंने किताबी दार्शनिकों पर चुटकी लेते हुए कहा कि "तीर से घायल व्यक्ति को देखकर पहली कोशिश यही होनी चाहिये कि हम उसका तीर निकालें और चिकित्सा करें; न कि उस बेचारे से 'तीर किसने मारा', 'क्यों मारा', 'कैसे मारा' जैसे सैद्धांतिक सवाल पूछने में समय बर्बाद करें।"
- उनके इसी नज़रिये से आगे चलकर 'बोधिसत्व' की धारणा फूटी।
- 'बोधिसत्व' यानी वह जो दुनिया के हर दुखी इंसान के दुख दूर होने तक चैन से न बैठे और स्व-अर्जित निर्वाण सुख को भी टालता रहे।
बुद्ध की तीसरी बड़ी बात
- उन्होंने परलोक की बजाय इहलोक को ज़्यादा महत्त्व दिया।
- उन्होंने चार्वाकों की तरह हर अलौकिक तत्व को तो ख़ारिज नहीं किया, पर पुनर्जन्म और निर्वाण को मानते हुए भी ईश्वर और नित्य आत्मा को अस्वीकार कर दिया।
- ईश्वर पर तो उन्होंने प्रायः बात ही नहीं की; और स्थायी आत्मा को ख़ारिज करते हुए चेतना को सिर्फ एक प्रवाह के रूप में परिभाषित किया।
- जगत की व्याख्या जागतिक आधार तक ही सीमित रखने की कोशिश में उन्होंने 'अनित्यवाद' का सहारा लिया अर्थात् खुलकर कहा कि 'संसार में कुछ भी नित्य नहीं है'।
- हम एक नदी में दो बार नहीं नहा सकते क्योंकि तब तक न सिर्फ नदी का पानी बदल चुका होता है, बल्कि हमारे भीतर भी काफी कुछ नया घट चुका होता है।
- यही अनित्यवाद आगे चलकर 'क्षणभंगवाद' बना जो लगभग इसी भाषा और ऐसे ही उदाहरणों के साथ बुद्ध के कुछ समय बाद के ग्रीक दार्शनिकों हेराक्लाइटस और क्रैटिलस में भी दिखता है।
- बीसवीं शताब्दी के अमेरिकी प्रैगमैटिक फिलॉसफर विलियम जेम्स जब आत्मा को नकारते हुए 'स्ट्रीम ऑफ कोंशियसनेस' का मुहावरा स्थापित करते हैं तो साफ़ दिखता है कि यह बुद्ध के 'चेतना प्रवाह सिद्धांत' की ही कुछ संशोधित प्रतिलिपि है।
- और आगे चलकर सार्त्र के दार्शनिक गुरु एडमंड हुस्सर्ल जब घुमा-फिराकर यह संभावना रखते हैं कि चेतना शायद कोई तरल प्रवाह या 'फ्ल्यूड फॉर्म' जैसा कुछ है
- तो मुझे तब भी बुद्ध अपनी जानलेवा मुस्कान के साथ पीछे खड़े दिखाई पड़ते हैं।
- ह्यूम और कांट के निष्कर्ष भले कुछ अलग हो गए हों,
- पर आत्मा पर संदेह करते हुए उन्हें भी उन्हीं बीहड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा है जिन पर बुद्ध के क़दमों के निशान मौजूद थे।
चौथी बात,
- उनका 'मध्यमा-प्रतिपदा' का सिद्धांत है जिसे लोक-जीवन के मुहावरों में 'मध्यम मार्ग' कह दिया जाता है।
- इसकी सैद्धांतिक व्याख्या कुछ भी हो, सरल-सपाट अर्थ इतना सा है कि किसी भी मामले में दोनों अतियों से बचते हुए बीच का यानी संतुलन का रास्ता चुनना चाहिये।
- न चरम भोग काम्य है और न ही चरम वैराग्य; सही रास्ता 'त्यागपूर्वक भोग' करने का है।
- इसी रास्ते पर चलने के कारण वे अहिंसा की बात करके भी महावीर जैसी अव्यावहारिकता को नहीं अपनाते।
- कई वर्षों तक कुछ अतिवादी विचारधाराओं से भीतर और बाहर लड़ते रहने के बाद मेरी समझ तो यही बनी है कि हम सबको जीवन के अधिकांश मामलों में बीच का रास्ता ही चुनना पड़ता है;
- चाहे हम सैद्धांतिक तौर पर यह घोषित करें कि 'बीच का रास्ता नहीं होता'।
- असली अंतर इतना ही होता है कि कोई बिल्कुल बीच में होता है जबकि कोई उस बिंदु से थोड़ा दाएँ या थोड़ा बाएँ।
- अंतर सापेक्ष और मात्रात्मक ही होते हैं, निरपेक्ष नहीं।
पाँचवी बात
- बुद्ध का सबसे क्रांतिकारी उपदेश था- 'आत्म दीपो भव' यानी 'अपने दीपक स्वयं बनो'।
- बुद्ध में बाकी धर्म प्रतिपादकों की तरह यह अहंकार नहीं है कि सभी मानवों के जीवन का अंतिम उद्देश्य और मार्ग वे ही बताएंगे।
- वे तो सभी को प्रोत्साहित करते हैं कि अपना मार्ग खुद चुनो, किसी का अनुकरण मत करो।
- इंग्लैंड के प्रसिद्ध धर्म दार्शनिक जॉन हिक ने ईसा मसीह और श्री कृष्ण के कथनों की तुलना करते हुए निष्कर्ष निकाला था कि कृष्ण जी ईसा मसीह से ज़्यादा लोकतांत्रिक बात करते हैं।
- अगर उन्हीं कसौटियों पर और तुलनाएँ करें तो हम पाएंगे कि बुद्ध में यह लोकतांत्रिकता किसी भी दूसरे धर्म प्रतिपादक से ज़्यादा थी।
- 'आत्म दीपो भव' कहना तो सीधे-सीधे अपने वर्चस्व को स्वयं ठुकराना है।
- गौरतलब है कि डॉ. अंबेडकर भी बौद्ध धर्म को अपनाने से पहले लंबे समय तक इस द्वंद्व में रहे थे कि वे सिक्ख धर्म अपनाएँ या बौद्ध धर्म?
- अंततः जिन कारणों से उन्होंने बौद्ध धर्म को चुना, उसमें बुद्ध के दर्शन में मौजूद लोकतांत्रिकता एक प्रमुख कारण थी।
ऐसा नहीं है कि बुद्ध ही संसार के अंतिम सत्य हैं। निश्चय ही वे कुछ बिंदुओं पर गलत भी दिखते हैं।
- मसलन, वे संसार को सिर्फ़ दुखमय मानते हैं और सुखों को भ्रामक बताते हैं।
- ऐसा हम क्यों मानें? हम सुख-दुख मिश्रित जगत को उसी रूप में क्यों न स्वीकार करें जैसा वह हमारे अनुभव में आता है।
- फिर, वे आत्मा को ठुकराने के बाद भी जिन तर्कों के आधार पर पुनर्जन्म और निर्वाण को स्वीकार लेते हैं, वे भी आसानी से गले नहीं उतरते।
सार
- बुद्ध आज भी अप्रासंगिक नहीं हुए हैं।
- वे श्रीलंका से जापान और तिब्बत तक तो पूरी धाक जमाए ही हुए हैं,
- शेष दुनिया के लिये भी ज़रूरी हैं।
- हमारा फ़र्ज़ बनता है कि उन्हें सिर्फ एक सरकारी छुट्टी के लिये याद न करें बल्कि उस प्रदेय को भी स्मरण करें जो उन्होंने भारत और विश्व की सभ्यता को दिया है।