मृदा

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मृदाओं की उत्पत्ति

  • मिट्टी के निर्माण में विभिन्न प्राकृतिक कारक जैसे – स्थलमंडल, वायुमण्डल, जलमण्डल तथा जीवमण्डल प्रमुख भूमिका निभाते हैं ।
  • मिट्टी अपने पैतृक चट्टान (Perent rocks) के चूर्ण का वह निक्षेप है, जो अपक्षय तथा अपरदन कारकों द्वारा चट्टानों से अलग किया जाता है तथा जिसके निर्माण में वहाँ के वायुमंडलीय तत्वों (जलवायु) तथा जैविक तत्वों (वनस्पति, जन्तु एवं सूक्ष्म जीवाणु) की विशेष भूमिका होती है ।
  • पैतृक चट्टान के अपक्षयित चूर्ण के रंघ्रों । (Pores) में कुछ वायुमंडलीय गैसों जैसे नाइट्रोजन ऑक्सीजन  इत्यादि का समावेश हो जाता है जिसे मृदा-वायु  (Soil air) कहा जाता है ।
  • मिट्टी के रंघ्रों को रंघ्राकाश (Soil) Atmosphere) कहा जाता है । वर्षा वाले क्षेत्रों में इसमें जल प्रवेश कर जाता है । मिट्टी में वनस्पतियों का सड़ा-गला अंश मिल जाता है जिसे ह्यूमस (Humes) कहते हैं ।
  • इसी में जीवों का सड़ा-गला अंश भी मिल जाता है, जिसे ब्वजजवपक कहा जाता है ।
  • इस प्रकार मिट्टी के निर्माण में चट्टान की प्रकृति अपक्षय तथा अपरदनकारी प्रक्रम, जल की प्राप्ति तथा वनस्पति एवं जीवों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है । किन्तु इन सबमें चट्टान तथा जलवायु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक हैं ।

भारतीय मृदाओं का वर्गीकरण

  • भारत एक विशाल देश है जहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाईं जाती हैं ।
  • यहाँ की मिट्टी के क्षेत्रीय वितरण में असमानता का मुख्य कारण तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता जैसे जलवायुगत तत्वों में भिन्नता का होना, विभिन्न भौगर्भिक युगों की संरचना, वनस्पति आवरण में क्षेत्रीय भिन्नता आदि का पाया जाना है ।
  • भारत की मिट्टियों का उचित वर्गीकरण प्रस्तुत करना एक जटिल कार्य है । दरअसल मिट्टियों को कई आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है और किसी भी एक आधार पर किया गया वर्गीकरण पूर्णतः त्रुटिहीन साबित नहीं हो सकता ।
  • यही कारण है कि मृदा वैज्ञानिक, कृषि वैज्ञानिक तथा भूगोलवेत्ताओं ने विविध प्रकार के मापक को आधार मानते हुए मृदा के वर्गीकरण का अपने-अपने ढंग से प्रयास किया है । इनमें से कुछ प्रमुख आधारों पर किए गए मृदा के वर्गीकरण निम्नलिखित हैं –

जलोढ़ मृदा

  • भारत का सर्वाधिक क्षेत्रफल इस मृदा के अन्तर्गत आता है । इसके अन्तर्गत 7.7 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है, जो कुल क्षेत्रफल का 24 प्रतिशत है ।
  • यह मृदा उपजाऊ मृदा की श्रेणी में आता है ।
  • हांलाकि इसमें नाइट्रोजन और ह्यूमस की कमी होती है लेकिन पोटाश और चूना की प्रचुरता होती है । यह मृदा गंगा के मैदान में पाई जाती है |

लाल मृदा 

  • लाल मृदा प्रायद्वीपीय भारत की विशेषता है । भारत में सभी आर्कियन और धारवाड़ चट्टानी क्षेत्र में लाल मृदा पायी जाती है ।
  • इसका कुल क्षेत्रफल 5.2 लाख वर्ग कि.मी. है ।
  • यह मृृदा मुख्यतः तमिलनाडु राज्य में कर्नाटक पठार, पूर्वी राजस्थान, अरावली पर्वतीय क्षेत्र, मध्य प्रदेश के ग्वालियर, छिन्दवाड़ा, बालाघाट, छत्तीसगढ़ के दुर्ग तथा बस्तर जिला, उत्तर प्रदेश के झांसी और ललितपुर जिला, महाराष्ट्र के रत्नागिरी, झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र, आन्ध्रप्रदेश के रायलसीमा पठारी क्षेत्र के साथ-साथ मेघालय तथा नागालैंड के भी कई क्षेत्रों में पायी जाती है । 
  • इस मृदा में लोहे की प्रधानता होती है । इसी प्रधानता के कारण इसका रंग लाल हो जाता है ।
  • इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी होती है । इसमें नमी को बनाये रखने की क्षमता भी कम होती है ।
  • ह्यूमस की मात्रा भी कम होती है । केरल में इस मृदा पर रबर की कृषि तथा कर्नाटक के चिकमंगलूर जिला में काफी की बगानी कृषि होती है । दलहन, तिलहन मोटे अनाज आदि इसकी प्रमुख फसलें हैं ।

काली मिट्टी

  • इसका क्षेत्रफल 5.18 लाख वर्ग कि.मी. है । इसे ‘रगूर मृदा’ या ‘कपासी मृदा’ भी कहते हैं।
  • इसी मृदा पर भारत का लगभग दो तिहाई कपास उत्पन्न होता है । यह मृदा दक्कन लावा प्रदेश की विशेषता है। दूसरी शब्दों में यह बेसाल्ट के क्षरण और विखंडन से विकसित मृदा है ।
  • चूँकि बेसाल्ट का रंग काला होता है, इसलिए मृदा भी काले रंग की होती है । यह मृदा सतह पर रूखड़ी होती है । लेकिन सतह के नीचे चिकने स्तर होते हैं ।
  • रूखड़े सतह के कारण जल नीचे चला जाता है और नीचे क्ले होने के कारण जल का बहाव पुनः अधिक गहराई तक नहीं होता । इसके कारण मृदा के ‘अंतर्गत’ नमी लंबी अवधि तक रहती है । 
  • यह भारत में उर्वर मृदाओं में से है । पर्याप्त नमी के साथ-साथ इस मृदा में चूना, पोटाश और लोहा का भी पर्याप्त अंश होता है । परन्तु इसमें ह्यूमस और जैविक तत्वों की कमी होती है ।
  • इन सबके बावजूद अन्य खनिजों की बहुलता और जल रखने की क्षमता इसे उर्वरक मृदा बनाते हैं । यह मृदा शुष्क कृषि के लिए बहुत अनुकूल है । यही कारण है कि इसमें चावल के बदले मोटे अनाज अधिक होते हैं ।
  • लेकिन भारत में इसका अधिकतर उपयोग व्यापारिक फसलों के लिए होता है । कपास इसकी परंपरागत फसल है ।
  • 60 के दशक में यहाँ गन्ने की कृषि वृहत स्तर पर हुई, 70 के दशक में केले की कृषि और 90 के दशक से अंगूर और नारंगी की कृषि। फिर भी कपास दक्कन क्षेत्र की प्रमुख फसल है ।

]लेटेराइट मृदा

  • इसके अन्तर्गत करीब तीन लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा भारत के उन क्षेत्रों में पायी जाती है, जहाँ निम्नलिखित भौगोलिक विशेषताएँ पायी जाती हैं।
  • प्रथमतः लैटराइट चट्टान का होना आवश्यक है । दूसरा उस प्रदेश का मौसम वैकल्पिक हो अर्थात आर्द्र और शुष्क मौसम वैकल्पिक रूप से आते रहें । 
  • भारत में यह मृदा मुख्यतः केरल, सह्याद्रि पर्वतीय क्षेत्र, पूर्वी घाट, पर्वतीय उड़ीसा, बिहार और मध्यप्रदेश के पठारी क्षेत्र, गुजरात के पंचमहल जिला और कर्नाटक के बेलगाँव जिला में प्रधानता से पायी जाती है । इस मृदा का सर्वाधिक क्षेत्र केरल में है ।
  • इसमें एल्युमिनियम और लोहा की प्रधानता होती है । इसमें ह्यूमस का निर्माण तो होता है, लेकिन मृदा के उपरी सतह पर इसकी कमी रहती है।
  • वस्तुतः यह उपजाऊ मृदा की श्रेणी में नहीं है । लेकिन यह जड़ीय फसल ;तववज बतवचद्ध जैसे – मुंगफली के लिए विशेष रूप से उपयोगी है ।
  • भारत की अधिकतर मूंगफली इसी मृदा में होती है । यह मृदा काजू की कृषि, रबर, काॅफी और मसाले, तेजपात की कृषि के लिए भी अनुकूल है ।

वनीय मृदा

  • वनीय मृदा दो लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में पाई जाती है । यह मृदा मुख्यतः पूर्वोत्तर भारत, शिवालिक पहाड़ी और दक्षिण भारत के पर्वतीय ढ़ालों पर पायी जाती है ।
  • इस मृदा की परत पतली होती है। इसके उपरी सतह पर जैविक पदार्थ बहुलता से होते हैं । यह मृदा बागानी फसलों के अनुकूल है । भारत के अधिकतर बागानी फसल (चाय, रबर) इसी मृदा पर उत्पन्न होती है । पूर्वोत्तर भारत तथा शिवालिक क्षेत्र में झूम कृषि और सीढ़ीनुमा कृषि भी मुख्यतः इसी प्रकार की मृदा पर होती है । 
  • यह मृदा क्षरण की गंभीर समस्या से ग्रसित है । कंटूर फार्म विकसित कर इस मृदा को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया जा रहा है ।
  • कर्नाटक, असम और मेघालय में इस मृदा के उपर बांस की बागानी कृषि, कर्नाटक, केरल, अण्डमान-निकोबार द्वीपसमूह और त्रिपुरा में इसी मृदा के उपर रबर की बागानी कृषि बहुलता से की जाती है ।

लवणीय एवं क्षारीय मृदा

  • इसके अंतर्गत 1.42 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा अंतःप्रवाह क्षेत्र की विशेषता है। इसे ‘पलाया मृदा’ भी कहा जाता है । मरुस्थलीय प्रदेश के पलाया, जलोढ़ और बलुही क्षेत्र में इसकी प्रधानता है ।
  • भारत में राजस्थान के लूनी बेसिन, सांभर झील के क्षेत्र तथा दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई छोटे-छोटे बेसिन में यह मृदा विकसित हुई है । मैदानी भारत में भी यह कहीं-कहीं पाई जाती है । इसे ‘रेह’ अथवा ‘ऊसर मृदा’ भी कहा जाता है ।
  • इसमें लवण, बालू और क्ले की प्रधानता होती है । वर्षा होने के बाद सतह के लवण घुलकर नीचे चले जाते हैं । लेकिन ज्योंही वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया तीव्र होती है, लवण पुनः उपरी सतह पर आ जाते हैं ।
  • क्षारीय मृदा में भी लवण की प्रधानता होती है, लेकिन इसमें सोडियम क्लोराइड अधिक होते हैं, जो जल्दी से घुलकर सतह के नीचे नहीं जाते हैं ।
  • भारत का यह मृदा क्षेत्र कृषि के लिए प्रतिकूल क्षेत्र है । इसमें नमी की भारी कमी होती है। लेकिन नवीन कृषि नीति के अंतर्गत ऐसे अंतःप्रवाह क्षेत्र से जल के बाहरी निकास का प्रयास किया जा रहा है।
  • जल के निकास से वाष्पोत्सर्जन का प्रभाव कम होगा और इससे लवण का स्तर धीमी गति से सतह पर आने लगेगी । पुनः लवण का स्तर सतह पर आये, इसके पूर्व ही यदि ड्रिप सिंचाई की व्यवस्था हो जाये, तो लवण को नीचे की स्तरों पर रखा जा सकता है ।
  • यह परिस्थिति सब्जी, फल और फूल की कृषि के लिए अनुकूल होती है । राजस्थान एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड द्वारा लवणीय मृदा के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं । इसी विकास कार्यों के परिणामस्वरूप राजस्थान इन फसलों का अग्रणी उत्पादक हो गया है ।

मरुस्थलीय मृदा

  • भारत की यह मृदा एक लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र के अंतर्गत आती है । यह अरावली पर्वत के पश्चिमी राजस्थान की विशेषता है ।
  • इसके अंतर्गत लवण और बालू की प्रधानता होती है । फास्फेट खनिज भी पर्याप्त मात्रा से पाये जाते हैं । लेकिन इसकी सबसे बड़ी समस्या नमी की कमी है ।
  • जब वर्षा ऋतु में नमी की उपलब्धता होती है, तो यह मृदा मोटे अनाजों के लिए अनुकूल हो जाती है ।
  • भारत का अधिकतर बाजरा इसी मृदा पर उत्पन्न किया जाता है । वर्तमान समय में इस मृदा का उपयोग चारे की कृषि तथा कई प्रकार के दलहन की कृषि के लिए किया जाता है ।

पिट अथवा जैविक मृदा

  • इसके अंतर्गत भारत का करीब 1 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा उर्वरक मृदा की श्रेणी में नहीं आती ।
  • यह डेल्टाई भारत की विशेषता है । इसके अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्र हैं – केरल का एलप्पी जिला तथा उत्तरांचल का अल्मोड़ा जिला । इस मृदा में क्ले की प्रधानता होती है । ज्वारीय प्रभाव से यह अक्सर जलमग्न होती रहती है ।
  • अतः इसके क्ले मृदा में नमी और लवण की कमी नहीं होती । लेकिन इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें ह्यूमस का अंश गौण होता है, क्योंकि लवणयुक्त इस मृदा में सूक्ष्म जीवों का विकास नहीं हो पाता ।
  • सूक्ष्म जीवों के अभाव में ह्यूमस का निर्माण नहीं होता । यही कारण है कि इस मृदा में उर्वरक गुणों की कमी है ।
  • इसी कारण जलोढ़ और तटीय मृदा होने के बावजूद यह भारत की उपजाऊ मृदाओं की श्रेणी में नहीं है ।

भारत में मृदा-समस्याएँ

  • मिट्टी की प्राकृतिक क्षमता अथवा उर्वरता ही भू-दक्षता (Land Capability)  या ‘भू-क्षमता’ Land Efficiency)   कहलाती है ।
  • मिट्टी का सीमा से अधिक प्रयोग करने पर इसके प्राकृतिक क्षमता में हृास होता है, जिससे विभिन्न मृदा समस्याओं का जन्म होता है, जो मानव अस्तित्व के लिए एक चिन्ता का विषय है।
  • भारतीय कृषि आयोग के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 53.19 प्रतिशत क्षेत्र अपरदन की समस्या से ग्रसित है जिसमें जल तथा वायु अपरदन से प्रभावित भूमि 14.12 करोड़ हेक्टेयर एवं अन्य कारणों से अपरदित क्षेत्र 3.37 करोड़ हेक्टेयर है|

मृदा अपरदन (Soil Erosion)

(क) प्राकृतिक कारणों से अपरदन,
(ख) मानवीय कारणों से अपरदन ।

(क) प्राकृतिक कारणों से अपरदन –

  1. जलीय अपरदन
  2. सागरीय अपरदन 
  3. वायु अपरदन
  4. हिमानी अपरदन
  5. निर्वनीकरण
  6. जुताई

(ख) मानवीय कारणों से अपरदन –

मृदा प्रदूषण –

  1. ऊसरीकरण
  2. बंजर भूमि
  3. नम भूमि
  4. अम्लीकरण
  5. रिले-क्रापिंग
  6. रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
  7. नगरीय तथा औद्योगिक कचरा

मृदा अपरदन के कारक

जलीय अपरदन (Fluvial Erosion)

जल द्वारा मिट्टी के घुलनशील पदार्थों को घुला कर बहा ले जाना घोलीकरण (Solution) या जलकृत अपरदन (Corrosion)  कहलाता है । जल की चोट से मिट्टी का स्थानान्तरण जलगति क्रिया (Hydraulic Action)  कहलाता है । जल कई रूपों में मृदा-अपरदन का कार्य करता है। इनमें प्रमुख है – चादर अपरदन, नलिका अपरदन, अवनालिका अपरदन आदि।

सागरीय  अपरदन

सागर की लहरें तट से टकराकर चट्टानों का अपक्षय करती हैं । सागरीय जल के विभिन्न विक्षोभों में सर्वाधिक अपरदन लहरों (Waves)  द्वारा होती है । ज्वार; (Tide) से भी अपरदन होता है । समुद्र की सतह पर लहरों द्वारा तय की गयी दूरी फेच (Fetch) कहलाती है । फेच जितना अधिक लम्बा होता है, समुद्री अपरदन उतना अधिक तीव्र होता है । भारत में लहरों द्वारा सर्वाधिक अपरदन केरल के पश्चिमी तट तथा महराष्ट्र तट पर होता है । समुद्री अपरदन से बचने के लिए केरल सरकार ने तट के सहारे ग्रेनाइट दीवाल  (Granite Wall)  का निर्माण कराया है ।

वायु अपरदन – (Wind Erosion)

तीव्र पवनों के प्रभाव से सूक्ष्म कणों का उड़ाया जाना अपवाहन ;(Dflation)  कहलाता है। मृदा-अपरदन चक्रवातों द्वारा भी होता है, जिसमें चक्रवात मिट्टी को उड़ाकर छोटे गर्त बना देते हैं, जिन्हें धूलि का कटोरा ;(Dust Bowl)  कहा जाता है । भारत में मई तथा जून माह में रबी की फसलों की कटाई के पश्चात् सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान की उपजाऊ मिट्टी का भी पवन द्वारा पर्याप्त मात्रा में अपरदन होता है

हिमानी अपरदन (Glacial Erosion)

हिमालय में हिमरेखा के नीचे बहने वाले बर्फ तथा जल को हिमनद;(Glacier)  कहा जाता है। ये चट्टानों तथा मिट्टी को काटकर निचली घाटी में जमा कर देते हैं, जिन्हें हिमोढ(Moraine)  कहा जाता है ।

निर्वनीकरण (Deforestation)

निर्वनीकरण द्वारा मृदा-अपरदन में वृद्धि होती है, क्योंकि वन मिट्टी को अपरदित होने से निम्न रूपों में बचाते हैं –
1. जड़ों द्वारा अपरदन पर नियंत्रण कर,
2. पत्तियों द्वारा बूँदाघात अपरदन ;(Splash erosion)  के नियंत्रण द्वारा तथा
3. भूमि पर गिरी पत्तियों द्वारा धरातलीय प्रवाह की गति में कमी तथा अपवाहन (Deflation)   की दर को कम करके । निर्वनीकरण के द्वारा देश में सर्वाधिक मृदा-अपरदन पश्चिमी घाट क्षेत्र में, शिवालिक पर्वत वाले क्षेत्र में तथा उत्तरी-पूर्वी राज्यों में होता है । उत्तरी-पूर्वी राज्यों में झूम खेती (Shifting Cultivation)  के कारण भी मृदा-अपरदन की दर अधिक है ।

जुताई

ढाल के अनुद्धैर्य जुताई से वर्षा का जल तेजी से नलिका तथा अवनलिका का विकास कर उपजाऊ मिट्टी बहा ले जाता है ।

मृदा अपरदन के प्रकार (Kinds of Soil Erosion)

 

चादर अपरदन (Sheet Erosion)

  • वर्षा की बूदों के मिट्टी पर आघात से सतह पर छोटे-छोटे गड्ढे बन जाते हैं । इन गड्ढ़ों को बूँदाघात क्रेटर (Splash Crater)  तथा इन गड्ढ़ों द्वारा मृदा अपरदन को बूँदाघात अपरदन (Splash Erosion) कहा जाता है ।
  • जब वर्षा का जल धरातल की मिट्टी को संतृप्त कर सतह पर प्रवाहित होने लगता है तो उसे धरातलीय-प्रवाह (Surface Run-off)  कहा जाता है । और जब यह प्रवाह समतल ढ़ाल पर चादर के रूप में होता है तब इसे चादर अपरदन (Sheet Erosion)  कहा जाता है ।
  • इस प्रवाह से लगभग एक करोड़ एकड़ क्षेत्र प्रभावित होता है, जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष देश की औसतन दो इंच मोटी परत अपरदित हो जाती है । चादर अपरदन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान तथा पश्चिमी एवं पूर्वी तटवर्ती मेदान हैं ।

नलिका अपरदन (Rill Erosion)

ढ़ाल की तेजी तथा जल की मात्रा के अधिक होने से चादर रूप में बहता हुआ जल छोटी-छोटी अंगुली के आकार की नलिकाएँ (Fingertip Streams) विकसित करता है, जिन्हें ‘नलिका’ (Rill) 
कहा जाता है ।

अवनलिका अपरदन (Gully Erosion)

नलिकाएं आगे चलकर और अधिक गहरी तथा चैड़ी हो जाती है, जिन्हें अवनलिका (Gully)  कहा जाता है

बीहड़ीकरण (Revination)

मुख्य नदियों के दोनों कगारों के सहारे ऊँची-नीची स्थलाकृति विकसित हो जाती है, जिसे बीहड़ (Ravines)  कहा जाता है । इसी क्रिया को बीहड़ीकरण (Ravination)  कहा जाता है । भारत के सर्वाधिक गहरे बीहड़ चम्बल घाटी में हैं, जो 40-60 मीटर गहरे हैं । इसके अतिरिक्त बेतव, केन, धसानयमुना नर्मदा ताप्तीमाही तथा साबरमती आदि नदियों ने भी अपनी घाटियों में बीहड़ों का निर्माण किया है ।

मृदा सर्पण (Soil Creep)

अधिक ढाल के कारण गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से नीचे की ओर मृदा के खिसकने को मृदा सर्पण (Soil Creep) कहते हैं ।

पंकवाह (Earth Flow)

गीली मिट्टी का धारा के रूप में ढ़ाल के सहारे प्रवाहित होना पंकवाह कहलाता है । भारत में ये घटनाएँ सामान्यतः नदियों के किनारे घटित होती हैं ।

मृदा अपरदन के कारण

निर्वनीकरण

वन पानी के बहाव की तीव्रता तथा वायु की गति को कम करता है । वह मिट्टी को जड़ों से जकड़कर रखता है । किंतु वनों के अविवेकपूर्ण विदोहन तथा कटाई अपरदन की तीव्रता बढ़ाती है ।

अनियंत्रित पशुचारण

इससे मिट्टी का गठन ढीला हो जाता है । फलतः जलीय तथा वायु-अपरदन तीव्र होता है ।

कृषि का अवैज्ञानिक ढंग

अत्यधिक जुताई, गहन कृषि, फसल चक्र की अनुपस्थिति आदि कारणों से मिट्टी अपना प्राकृतिक गुण खो देती है, जिससे उसका विघटन होने लगता है । यह जलीय तथा वायु अपरदन को सुगम बना देती है ।

भूमि की ढ़ाल

भूमि का तीव्र ढ़ाल गुरुत्त्वाकर्षणीय प्रभाव में मृदा को नीचे लाने में सहायक होती है ।

अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि

झूमिंग कृषि प्रणाली 

इससे वनों का विनाश होता है तथा मिट्टी के पोषक तत्त्व बह जाते हैं।

नदी बहाव की गति

 नदी की गति यदि दोगुनी हो जाए तो अपरदन क्षमता चार गुनी तथा वहन क्षमता 64 गुनी बढ़ जाती है ।

नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन

नदी मार्ग परिवर्तन कर उपजाऊ भूमि को जलमग्न कर देती है।

मृदा अपरदन का प्रभाव (राष्ट्रीय योजना समिति के अनुसार)

  1. भूमि की उर्वराशक्ति का नष्ट होगा,
  2. जोतदार भूमि में कमी,
  3. आकस्मिक तथा भयंकर बाढ़ का प्रकोप,
  4. शुष्क मरूभूमि का विस्तार,
  5. बीहड़ तथा बंजर भूमि में वृद्धि, जो असमाजिक तत्त्वों का शरणस्थल बनता है ।
  6. स्थानीय जलवायु पर विपरीत प्रभाव,
  7. नदियों का मार्ग परिवर्तन,
  8. भू-जलस्तर का नीचे जाना, फलस्वरूप पेयजल तथा सिंचाई के लिए जल की कमी,
  9. खाद्यान्न उत्पादन में कमी, फलस्वरूप आयात में वृद्धि, भुगतान संतुलन का बिगड़ना आदि।

मृदा संरक्षण  (Soil Conservation)

मिट्टी एक अमूल्य प्राकृतिक संसाधन है, जिस पर संपूर्ण प्राणि जगत निर्भर है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में; जहाँ मृदा अपरदन की गंभीर समस्या है, मृदा संरक्षण एक अनिवार्य एवं अत्याज्य कार्य है। मृदा संरक्षण एक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत न केवल मृदा की गुणवत्ता को बनाये रखने का प्रयास किया जाता है, बल्कि उसमें सुधार की भी कोशिश की जाती है ।
मृदा संरक्षण की दो विधियाँ हैं –

  1. जैवीय विधि
  2. यांत्रिक विधि 

जैवीय विधि –

  1. फसल सम्बन्धी
  2. वनरोपण सम्बन्धी

(क) फसल संबंधी –

  1. फसल चक्रल – अपरदन को कम करने वाली फसलों का अन्य के साथ चक्रीकरण कर अपरदन को रोका जा सकता है । इससे मृदा की उर्वरता भी बढ़ती है ।
  2. पट्टीदार खेती – यह जल-प्रवाह के वेग को कम कर अपरदन को रोकती है ।
  3. सीढ़ीनुमा खेती – इससे ढ़ाल में कमी लाकर अपरदन को रोका जाता है । इससे पर्वतीय भूमि को खेती के उपयोग में लाया जाता है ।
  4. मल्विंग पद्धति – खेती में फसल अवशेष की 10-15 से.मी. पतली परत बिछाकर अपरदन तथा वाष्पीकरण को रोका जा सकता है । इस पद्धति से रबी की फसल में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि की जा सकती है।
  5. रक्षक मेखला – खेतों के किनारे पवन की दिशा में समकोण पर पंक्तियों में वृक्ष तथा झाड़ी लगाकर पवन द्वारा होने वाले अपरदन को रोका जा सकता है ।
  6. खादों का प्रयोग – गोबर की खाद, सनई अथवा ढँचा की हरी खाद एवं अन्य जीवांश खादों के प्रयोग से भू-क्षरण में कमी आती है ।

(ख) वन रोपण संबंधी पद्धति –

वन मृदा अपरदन को रोकने में काफी सहायक होते हैं । इसके तहत दो कार्य आते हैं –

  1. प्रथम, नवीन क्षेत्रों में वनों का विकास करना, जिससे मिट्टी की उर्वरता एवं गठन बढ़ती है। इससे वर्षा जल एवं वायु से होने वाले अपरदन में कमी आती है ।
  2. द्वितीय, जहाँ वनों का अत्यधिक विदोहन, अत्यधिक पशुचारण एवं सतह ढलवा हो, वहाँ नये वन लगाना ।

(ग) यांत्रिकी पद्धति

यह पद्धति अपेक्षाकृत महंगी है पर प्रभावकारी भी ।

  1. कंटूर जोत पद्धति – इसमें ढ़ाल वाली दिशा के समकोण दिशा में खेतों को जोता जाता है, ताकि ढ़ालों से बहने वाला जल मृदा को न काट सके ।
  2. वेदिका का निर्माण कर अत्यधिक ढ़ाल वाले स्थान पर अपरदन को रोकना ।
  3. अवनालिका नियंत्रण – (क) अपवाह जल रोककर (ख) वनस्पति आवरण में वृद्धि कर तथा (ग) अपवाह के लिए नये रास्ते बनाकर ।
  4. ढ़ालों पर अवरोध खड़ा कर ।

मृदा संरक्षण हेतु सरकारी प्रयास
भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ के साथ ही इस दिशा में अनेक कदम उठाए जाने लगे थे । सुदूर संवेदन तकनीकी की मदद से समस्याग्रस्त क्षेत्र की पहचान की जा रही है । 
विभिन्न क्षेत्रों में वानिकीकरण की राष्ट्रव्यापी शुरूआत की गई है । इसमें सामाजिक वानिकी भी शामिल है ।
राजस्थान में इंदिरा गाँधी नहर परियोजना, मरू विकास कार्यक्रम तथा मरूथल वृक्षारोपण अनुसंधान केन्द्र आदि की शुरूआत की गई है।
शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता से झूम खेती नियंत्रण कार्यक्रम पूर्वोत्तर राज्यों, आन्ध्र प्रदेश तथा उड़ीसा में शुरू किया गया है । इसके अलावा भी मृदा संरक्षण हेतु प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।

मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)

मिट्टी की भौतिक तथा रासायनिक विशेषताओं में अपने ही स्थान पर परिवर्तन या हृस होना ही मृदा-प्रदूषण है । इसमें मिट्टी में गुणात्त्मक हृस होता है, जिसे मृदा अवनयन Soil Degradation कहा जाता है। इसके निम्न रूप हैं-

ऊसरीकरण

  • सामान्य शब्दों में जिस मिट्टी में नमक के कणों की परत मिट्टी की ऊपरी सतह पर मिलती है उसे ऊसर कहा जाता है । ऊसर भूमि में क्षारीयता (Alkolimity)  अधिक होती है ।
  • भारत में ऊसरीकरण मुख्य रूप से दो कारणों से हो रहा है:-
  1. प्रथम कारण प्राकृतिक है, जिसमें भूमिगत जल स्तर ऊँचा होता है । उच्च भूमिगत जल स्तर वाले भागों में अधिक ताप के कारण वाष्पीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप नमक के कण केशिका क्रिया Capillary Action)  द्वारा ऊपर आकर जमा हो जाते हैं । इस प्रकार के ऊसर के टुकड़े समूचे उत्तरी मैदान के पट्टियों में मिलते हैं । दूसरा क्षेत्र गुजरात है, जहाँ अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है । इससे नमक ऊपरी सतह पर आ जाता है । तीसरा क्षेत्र तटवर्ती राज्यों का है, जहाँ समुद्र का नमकीन जल भूमिगत जलभरों ;ळतवनदक ।Ground Aquifers)में प्रविष्ट हो जाता है । इसका नमक पुनः केशिक क्रिया द्वारा धरातल पर जमा हो जाता है ।
  2. लवणीकरण का दूसरा कारण मानवीय अर्थात् नहरों द्वारा सिंचाई है । नहरों के जल के रिसाव से या नहरों के कटने से, भूमिगत जल स्तर ऊँचा हो जाता है, जिससे केशिका क्रिया द्वारा नमक के कण धरातल पर जमा हो जाते हैं । भारत में नहरों द्वारा सिंचित सभी क्षेत्रों में मिट्टी में लवणीकरण की मात्रा में वृद्धि हुई है ।

नियंत्रण के उपाय –

सन् 1876 में उत्तरी-पश्चिमी प्रान्त की सरकार ने रेह आयोग ;(Reh Commission)  की स्थापना की थी जिसने ऊसरीकरण का कारण बड़ी नहरों के निर्माण को बताया था । 1972 में यह विषय सिंचाई आयोग द्वारा पुनः उठाया गया, जिसने दो कदम सुझाये थे –

  1. उचित जल-प्रवाह व्यवस्था तथा
  2. नहरों द्वारा जल रिसाव पर नियंत्रण ।

सन् 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग के अनुमान से भारत में जलप्लावित तथा लवणीकृत क्षेत्र 1.3 करोड़ हेक्टेयर था । सन् 1988 में योजना आयोग द्वारा एक कार्यदल नियुक्त किया गया, जिसका उद्देश्य आठवीं योजनावधि में ऐसी भूमि के बारे में प्रस्ताव तैयार करना था । इस कार्यदल ने प्रस्तुत किया कि भारत में जलप्लावन तथा लवणीकरण से प्रभावित क्षेत्र प्रतिवर्ष 9 लाख हेक्टेयर की दर से बढ़ रहा है । 1991 में कुल प्रभावित क्षेत्र 20.3 लाख हेक्टेयर था ।

बंजर भूमि

जिस भूमि का कोई आर्थिक प्रयोग न हो, उसे बंजर भूमि कहा जाता है । इसके निम्न कारण होते हैं –

  1. दोषपूर्ण भूमि एवं जल प्रबंधन ।
  2. निर्वनीकरण ।
  3. अति पशुचारण, तथा
  4. अति कृषि ।

नम भूमि

  • नम भूमि स्थलीय तथा जलीय परिस्थितिक तंत्र के मध्य वह संक्रमणीय पेटी होती है जहाँ या तो भूमिगत जलस्तर अत्यधिक ऊँचा या सतह के पास होता है या भूमि पूर्णकालिक या अल्पकालिक रूप से जलमग्न होती है ।
  • उदाहरण के लिए भारत का पश्चिमी एवं पूर्वी तटवर्ती भाग; जहाँ लैगून, झील, डेल्टा तथा तट रेखा के सहारे नम-भूमि क्षेत्र है ।
  • इसके अतिरिक्त देश के आतंरिक भागों में झीलों के पास का भाग तथा बाढ़ के दौरान जलप्लावित भाग नम-भूमि के अन्तर्गत आता है ।

नम-भूमि दो प्रकार के होते हैं –

  1. मार्श – वैसे दलदली भाग, जो ग्रीष्मकाल में जलावृत नहीं होते, तथा
  2. स्वाम्प – ये सालों भर (ग्रीष्म काल में भी) जलावृत रहते हैं ।

ज्वारीय दलदल

  • उपरोक्त पेटी के मध्य कुछ निम्न भागों में ज्वार का जल इकठ्ठा हो जाता है, जिसे ज्वारीय दलदल कहा जाता है ।
  • भारत में नम-भूमि का कुल क्षेत्रफल लगभग 40 लाख हेक्टेयर है ।

भारत में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के निम्न नम-भूमियों का निर्धारण किया गया है –

  1. वूलर झील एवं हरीके वैरेज
  2. चिलका झील
  3. केवलादेव राष्ट्र घाना पक्षी उद्यान, भरतपुर
  4. लोकटक झील, मणिपुर, तथा 
  5. सांभर झील, राजस्थान 

नम-भूमि यद्यपि एक प्रकार की अनुपयोगी भूमि मानी जाती है, किन्तु इसका अध्ययन विकास के क्षेत्र में निम्न महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है –

  1. बाढ़ नियंत्रण
  2. जल की गुणात्त्मकता का नियमन
  3. प्रदूषण को कम करना, तथा
  4. जलीय – कृषि तथा जलीय जन्तु प्रजनन क्षेत्र के लिए संभाव्य स्थान ।

भारत सरकार ने संरक्षण एवं प्रबन्धन हेतु 21 नम-भूमि क्षेत्रों की पहचान की है ।

अम्लीकरण

  • वन प्रदेशों की मिट्टी को पत्तियों द्वारा प्राकृतिक रूप से अम्ल मिलता रहता है । इसके अतिरिक्त मानवीय क्रियाओं द्वारा भी मिट्टी में अम्ल की मात्रा में वृद्धि होती रहती है । 
  • भारत में अम्लीय वर्षा की सूचना कई स्थानों से प्राप्त हाती है । उदाहरण के लिए कानपुर औद्योगिक क्षेत्र के कारण अम्लीय वर्षण के कारण कानपुर क्षेत्र में अम्ल की मात्रा अधिक हो गई, फलस्वरूप उस क्षेत्र की मिट्टी अनुपजाऊ हो गई । 
  • नियंत्रण के उपाय – अम्लीय वर्षा से बचने के लिए वायु-प्रदूषण पर कठोर नियंत्रण करना होगा ।

रिले क्रापिंग

  • एक ही खेत में वर्ष भर लगातार तीन या उससे अधिक फसलें लेते रहना ही ‘रिले क्रापिंग’ है। रबी की फसल को सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । सिंचाई के समय मिट्टी के रासायनिक तत्त्व घुलकर मिट्टी की परिच्छेदिका ;वपस च्तवपिसमद्धके निचले संस्तर में जमा हो जाते हैं ।
  • गर्मी में खेत के खाली रहने की स्थिति में कृषक खेतों की जुताई कर देता है, जिससे नीचे जमा तत्त्व केशिका क्रिया (Capillry Action) ऊपर आ जाते हैं । इससे मिट्टी में उर्वरा शक्ति पुनः आ जाती है । मिट्टी के रासायनिक तत्त्वों के इस प्राकृतिक चक्रण कद्वारो मृदा-चक्र ;ैवपस ब्लबसमद्ध कहा जाता है ।
  • मनुष्य रिले – क्रापिंग द्वारा इस चक्र में बाधा उत्पन्न करता है । वह गर्मी में खेतों को अवकाश नहीं देता । अपितु उन पर जायद की फसलें पैदा करता है जिसके लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है ।
  • गर्मी में भी खेतों की सिंचाई होते रहने के कारण मिट्टी के उर्वरक तत्त्व वर्ष भर रिसाव द्वारा नीचे जाते रहते हैं । उनको ऊपर आने का अवसर नहीं मिलता । फलस्वरूप मिट्टी अनुपजाऊ हो जाती है ।

अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग

  • ये मृदा को प्रदूषित करते हैं । इन्हीं समस्याओं से बचने के लिए हरी खाद तथा जैव उर्वरक पर अधिक बल दिया जा रहा है ।

नगरीय तथा औद्योगिक कचरे का विसर्जन

  • इनसे भी मृदा में प्रदूषण बढ़ता है ।

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